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अपने गौरव की तलाश में अंगिका

madhbendra
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अंगिका अपना गौरव तलाश रही है। इतिहास के पन्नों को खंगालें तो इसके निशान दूर तलक मिलते हैं, पर समय के प्रवाह ने न केवल इसके भौगोलिक विस्तार को संकीर्ण किया, बल्कि इसकी विकास धारा भी अवरुद्ध होती चली गई। वर्तमान में जबकि अंगिका के विकास के लिए आयोग का सृजन हो चुका है, एक उन्नत भाषा के रूप विकास के लिए अभी भी इसके समक्ष ढेर सारी चुनौतियों को लांघना शेष है।
यूं तो तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय में 2002 से ही अंगिका विभाग अपने अस्तित्व में है। छात्र अंगिका से शोध भी कर रहे हैं। पर, आज तक यह अपनी मानकता को प्राप्त नहीं कर सका है। अगर अंगिका के भौगोलिक विस्तार पर गौर करें तो अंगिका का केंद्र स्थल भागलपुर है, जबकि बेगूसराय और खगडिय़ा से लेकर पूर्णिया तक और सहरसा के कुछ हिस्सों में भी यह भाषा चलन में है। गंगा के दक्षिण में इसका विस्तार मुंगेर और झारखंड के संथाल परगना प्रमंडल तक है। अंगिका जहां भी है, अपने मूलता के साथ वहां की स्थानीकी को भी धारण किए हुए है। भागलपुर और नवगछिया तक में समानता का अभाव है। एक मानक भाषा के रूप में विकास के लिए यह सबसे बड़ी बाधा है। तिलकामांझी विश्वविद्यालय के अंगिका विभागाध्यक्ष डॉ.मधुसूदन झा की मानें तो अंगिका को मानक स्वरूप देना उतना भी कठिन नहीं है। भागलपुर स्टेशन से लेकर जीरोमाइल, सबौर, सुल्तानगंज, बरियारपुर, घोरघट पुल व कटोरिया की परिधि में बोली जाने वाली भाषा को मानक माना जा सकता है। नवगछिया की बोली अंगुत्तराय कहलाती है। इसी तरह शेखपुरा में मागधी मिश्रित और सहरसा में मैथिली मिश्रित अंगिका है। अभी जो साहित्यकार जिस स्थान से आते हैं, उसी में रचना करते हैं। मानक बन जाने के बाद बहुरूपता की समस्या दूर हो जाएगी। पर, इस सबके लिए फंड और राजनीतिक-सामाजिक सक्रियता चाहिए, जिसका अभाव है।
वैदिक भाषा है अंगिका
अंगिका की ऐतिहासिकता को कुछ विद्वान वैदिक काल से जोड़कर देखते हैं। उस कालखंड में अंगिरस नामक एक ऋषि हुए थे, जिनके नाम कई वैदिक ऋचाएं हैं। भाषाविद् परशुराम ठाकुर ब्रह्ममवादी इन्हें ही अंगिका का जनक मानते हैं। ब्रह्मवादी कहते हैं कि वेदों में कई ऋचाएं ऐसी हैं, जिनसे उस युग में अंगिका के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। वहीं, डॉ.मधुसूदन झा की मानें तो एक भाषा के रूप में अंगिका की शुरुआत 750 ई. से हुई और इसके पहले रचनाकार सहरपा थे। सहरपा को उडिय़ा सहित कई अन्य भाषाओं का भी प्रथम कवि माना जाता है। दरअसल, संस्कृत से प्राकृत और अपभ्रंश होते हुए पूर्वी भारत में अंगिका, मैथिली, उडिय़ा और बांग्ला सहित चार भाषाएं अस्तित्व में आईं। अंगिका और मैथिली की लिपि कैथी बनी, जो आज दुर्लभ होती जा रही है। डॉक्टर झा के मुताबिक अंगिका के प्रसार के लिए देवनागरी ही उपयुक्त लिपि होगी।
मातृभाषा बनाई जाए
भागलपुर के 75 फीसद लोग अंगिकाभाषी हैं। बांका, मुंगेर, पूर्णिया, कटिहार, खगडिय़ा, बेगूसराय के अलावा झारखंड के कई जिलों में 50 से 60 फीसद तक लोग अंगिका बोलते हैं। इसी को ध्यान में रखकर इस बात की मांग की जा रही है कि प्राथमिक से उच्चतर शिक्षा तक में अंगिका को स्थान दिया जाए। अंगपुत्र और अंगोत्थान जैसे कई संगठन अंगिका को गौरव दिलाने के लिए प्रयासरत हैं। अंग पुत्र के शंकर सिंह सुराख का कहना है कि अलग अंग राज्य बनाने, रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर अंगिका में उद्घोषणा करने से अंगिका और अंग की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। डॉक्टर झा की मानें तो इन कदमों से अंगिका को उसका हक मिल पाएगा। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में अंगिका भाषी को नौकरियां मिलने में सहूलियत होगी। मीडिया और विज्ञापन में भी इसका चलन बढ़ेगाा। कुलमिलाकर यहां के लोगों और अंगिका दोनों के लिए यह हितकर होगा।

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